भारत-पाकिस्तान के बीच बढ़ते तनाव के चलते युद्धकालीन रणनीति “ब्लैकआउट” का अभ्यास 7 मई को किया जाएगा। यह कदम संभावित हवाई हमलों और सुरक्षा खतरों से निपटने की तैयारियों का हिस्सा है। हालांकि यह तकनीक दूसरी विश्व युद्ध के दौर से जुड़ी मानी जाती है, फिर भी मौजूदा हालात में इसे नागरिक और सैन्य सुरक्षा के नजरिए से जरूरी माना जा रहा है।
क्या है ब्लैकआउट रणनीति?
ब्लैकआउट एक ऐसी रणनीति है जिसमें रात के समय कृत्रिम रोशनी को या तो पूरी तरह बंद कर दिया जाता है या बहुत सीमित कर दिया जाता है। इसका उद्देश्य यह होता है कि दुश्मन के विमान या पनडुब्बियां रोशनी के सहारे अपने लक्ष्य को पहचान न सकें। इस प्रक्रिया में घरों, दुकानों, वाहनों और सड़कों की रोशनी को नियंत्रित किया जाता है।
द्वितीय विश्व युद्ध (1939-1945) के दौरान यह रणनीति विशेष रूप से ब्रिटेन, जर्मनी और अमेरिका में व्यापक रूप से अपनाई गई थी। लंदन ब्लिट्ज के दौरान जर्मन बमवर्षकों के हमलों से बचने के लिए ब्रिटिश शहरों को पूरी तरह अंधेरे में रखा गया था।
घरों और इमारतों के लिए क्या थे ब्लैकआउट नियम?
ब्रिटेन में 1 सितंबर, 1939 से पहले ही ब्लैकआउट संबंधी आदेश जारी कर दिए गए थे। नागरिकों को निर्देश दिए गए थे कि रात के समय उनके घरों की कोई भी रोशनी बाहर न दिखे। इसके लिए खिड़कियों और दरवाजों को गहरे पर्दों, मोटे कागज या काले कपड़े से पूरी तरह ढंकना अनिवार्य था। सरकार ने इन सामग्री की आपूर्ति सुनिश्चित करने की भी जिम्मेदारी ली।
सड़क की लाइटों को या तो पूरी तरह बंद कर दिया गया था या उन्हें इस तरह ढका गया था कि रोशनी केवल नीचे जमीन पर ही गिरे। लंदन में तो यह व्यवस्था 1914 में ही शुरू कर दी गई थी, जब प्रथम विश्व युद्ध के दौरान बाहरी रोशनी को सीमित करने के आदेश जारी हुए थे।
दुकानों और औद्योगिक इकाइयों के लिए भी कड़े निर्देश थे। फैक्ट्रियों में छतों पर लगे कांच के हिस्सों को काले रंग से रंग दिया जाता था ताकि अंदर की रोशनी बाहर न निकले। वहीं, दुकानों को ऐसे द्वार लगाने पड़े जिन्हें खोलने पर भी प्रकाश बाहर न जाए।
वाहनों के लिए ब्लैकआउट नियम
वाहनों की लाइटिंग उस समय बेहद संवेदनशील मामला था। ब्रिटेन में लागू ब्लैकआउट नियमों के तहत, सिर्फ एक हेडलाइट के उपयोग की अनुमति थी और वह भी ढंकी हुई हालत में। इस पर विशेष मास्क लगाया जाता था जिसमें केवल तीन पतली क्षैतिज स्लिट होती थीं, जिससे सीमित मात्रा में रोशनी बाहर निकलती थी।
पीछे और साइड में लगी लाइट्स को भी नियंत्रित किया गया। रियर लैंप को इतना छोटा कर दिया गया कि वह केवल करीब 30 गज की दूरी से दिखाई दे, लेकिन 300 गज से नहीं। साइड लाइट्स को भी मंद करना और हेडलाइट्स के ऊपरी हिस्से को पेंट करना अनिवार्य कर दिया गया।
वाहनों की दृश्यता को सुरक्षित रखने के लिए उनके बंपर और रनिंग बोर्ड पर सफेद रंग का मैट पेंट किया जाता था ताकि सड़क पर चलने में सुविधा हो, लेकिन ये रोशनी आसमान से न दिखे।
अतिरिक्त सावधानियां और प्रतिबंध
रात के समय ड्राइविंग को सुरक्षित बनाने के लिए गति सीमा को 32 किलोमीटर प्रति घंटा तक सीमित कर दिया गया था। इसके अलावा, वाहन के अंदर किसी भी प्रकार की लाइट की अनुमति नहीं थी। रिवर्स लाइट का उपयोग वर्जित था, और पार्किंग करते समय वाहन की चाबी निकालकर दरवाजे लॉक करना अनिवार्य बना दिया गया था।
ब्लैकआउट के पीछे का मकसद
इस रणनीति का मुख्य उद्देश्य दुश्मन के विमानों को लक्ष्य भेदने से रोकना है। युद्धकाल में रोशनी दुश्मन के पायलटों के लिए नेविगेशन और टारगेटिंग में मददगार होती है। ऐसे में अगर शहर अंधेरे में डूबा हो, तो हमलावरों के लिए सटीक निशाना साधना मुश्किल हो जाता है।
तटीय क्षेत्रों में ब्लैकआउट का एक और बड़ा फायदा यह होता है कि जहाजों को दुश्मन की पनडुब्बियों से बचाया जा सकता है, क्योंकि रोशनी के सहारे वे समुद्र में जहाजों की पहचान कर पाते हैं।
अतीत में ब्लैकआउट के अनुभव
ब्रिटेन में 1 सितंबर 1939 से ब्लैकआउट नियम लागू हुए थे। सभी घरों, दुकानों और कारखानों को रात में पूरी तरह अंधेरे में रखा जाता था। हेडलाइट्स पर मास्क लगाए जाते थे और स्ट्रीट लाइट्स को भी खास ढंग से ढंका जाता था।
हालांकि इसका नागरिक जीवन पर गहरा असर पड़ा। सड़क दुर्घटनाएं बढ़ गईं, पैदल यात्रियों की जान जोखिम में पड़ी, और अपराध दर में भी वृद्धि देखी गई। फिर भी, इन सभी कठिनाइयों के बावजूद यह रणनीति रक्षा की दृष्टि से अत्यंत उपयोगी सिद्ध हुई।
आधुनिक युग में ब्लैकआउट की प्रासंगिकता
आज के समय में जब सैटेलाइट, नाइट विज़न और रडार तकनीकें युद्ध के तरीकों को बदल चुकी हैं, ब्लैकआउट की प्रभावशीलता पर सवाल उठते हैं। कुछ सैन्य विश्लेषक मानते हैं कि यह रणनीति अब सिर्फ प्रतीकात्मक है, जबकि कुछ का मानना है कि सीमावर्ती क्षेत्रों में यह आज भी उपयोगी साबित हो सकती है।
विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि ब्लैकआउट अभ्यास से नागरिकों में सुरक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ती है और आपातकालीन परिस्थितियों से निपटने की क्षमता मजबूत होती है।
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ब्लैकआउट अब सिर्फ इतिहास की किताबों में दर्ज एक सैन्य रणनीति नहीं रह गई है। बदलते वैश्विक परिदृश्य और सीमावर्ती तनावों ने इसे फिर से चर्चा में ला दिया है। भारत किसी भी स्थिति से निपटने के लिए तैयार है और नागरिक सुरक्षा को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जा रही है।