भारत के प्रतिष्ठित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) ने एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से अहम बदलाव का फैसला लिया है। अब विश्वविद्यालय के प्रमुख को ‘कुलपति’ नहीं बल्कि ‘कुलगुरु’ के नाम से जाना जाएगा। यह निर्णय केवल शब्दों के बदलाव तक सीमित नहीं है, बल्कि इससे जुड़ी है एक समावेशी सोच और भारतीय शैक्षिक परंपरा की ओर लौटने की भावना।
विश्वविद्यालय की कुलपति प्रोफेसर शांतिश्री धुलीपुडी पंडित ने यह प्रस्ताव हाल ही में आयोजित कार्यकारी परिषद (एग्जीक्यूटिव काउंसिल) की बैठक में पेश किया था, जिसे सर्वसम्मति से स्वीकृति मिल गई है। यह बदलाव आधिकारिक रूप से 2025 से लागू होगा, जिसके तहत सभी दस्तावेजों — डिग्री प्रमाणपत्र, नियुक्ति पत्र, आदेश आदि — में अब ‘कुलपति’ शब्द के स्थान पर ‘कुलगुरु’ लिखा जाएगा।
जेंडर न्यूट्रल भाषा की दिशा में कदम
इस निर्णय के पीछे सबसे प्रमुख कारण है — लैंगिक समानता। ‘कुलपति’ शब्द परंपरागत रूप से पुरुष प्रधान पद की छवि प्रस्तुत करता है, जिसका अर्थ होता है “कुल का पति”। इसके विपरीत ‘कुलगुरु’ एक ऐसा शब्द है जिसमें किसी विशेष लिंग का निर्धारण नहीं होता, और यह स्त्री और पुरुष दोनों के लिए उपयुक्त है। प्रो. शांतिश्री का मानना है कि भाषा हमारे समाज की मानसिकता को आकार देती है, और अगर भाषा समावेशी हो, तो समाज भी अधिक समानता की ओर अग्रसर होता है।
उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि यह बदलाव केवल प्रतीकात्मक नहीं है, बल्कि इससे यह संदेश भी जाता है कि नेतृत्व किसी लिंग का मोहताज नहीं होता। ‘कुलगुरु’ शब्द समावेशी और सम्मानजनक है, जो किसी भी व्यक्ति के लिए उपयोग किया जा सकता है, चाहे वह महिला हो, पुरुष हो या ट्रांसजेंडर।

भारतीय परंपरा से जुड़ाव
‘कुलगुरु’ शब्द की जड़ें भारतीय गुरु-शिष्य परंपरा में गहराई से जुड़ी हैं। प्राचीन भारत में गुरुकुल व्यवस्था के अंतर्गत शिक्षा का केंद्र ‘कुल’ माना जाता था, और उसका प्रमुख ‘कुलगुरु’ कहलाता था। वे केवल शिक्षा देने वाले शिक्षक नहीं होते थे, बल्कि मार्गदर्शक, जीवन मूल्यों के प्रेरणास्रोत और संस्कार देने वाले होते थे।
जेएनयू का यह निर्णय शिक्षा को केवल आधुनिक संस्थागत ढांचे से नहीं, बल्कि भारत की गहराई से जुड़ी सांस्कृतिक सोच से जोड़ने का प्रयास भी है। प्रो. शांतिश्री ने कहा कि हमें शिक्षा को फिर से उस दिशा में ले जाना चाहिए जहां यह केवल जानकारी नहीं, बल्कि व्यक्तित्व निर्माण का माध्यम बनती है।
देश के अन्य हिस्सों में भी हो चुका है विचार
गौरतलब है कि इससे पहले भी कुछ राज्यों ने इसी प्रकार के बदलाव का प्रस्ताव रखा था। राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में भी विश्वविद्यालयों में ‘कुलपति’ की जगह ‘कुलगुरु’ शब्द को अपनाने की पहल की गई थी। हालांकि जेएनयू जैसे राष्ट्रीय स्तर के विश्वविद्यालय द्वारा यह बदलाव लागू करना, इसे एक बड़ी सांस्कृतिक और शैक्षिक पहल का स्वरूप देता है।
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जेएनयू का यह निर्णय केवल एक शब्द बदलने का नहीं है, बल्कि यह सोच बदलने की दिशा में एक मजबूत कदम है। यह कदम न केवल लैंगिक समानता को बढ़ावा देता है, बल्कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को उसकी सांस्कृतिक जड़ों से फिर से जोड़ने की कोशिश भी करता है। यह देखा जाना बाकी है कि देश के अन्य विश्वविद्यालय इस पहल को अपनाते हैं या नहीं, लेकिन इतना तय है कि यह एक नई शुरुआत का संकेत जरूर है।