इस बार के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनावों में वही हुआ जिसकी उम्मीद थी, वो नहीं जो हो नहीं सकता था..
डोनाल्ड का ‘ट्रंप कार्ड’ था ही ऐसा जिसके आगे कमला का कमाल नाकाम हो गया. देश को राष्ट्रवाद चाहिये था, अब राष्ट्रवादी राष्ट्रपति इस उम्मीद की डगर पर आगे बढ़ायेगा देश को जो पिछले पांच सालों से राह भूला हुआ सा था.
चुनाव परिणाम से Kamala Harris हैरान नहीं हुई होंगी क्योंकि उनको पता था कि ट्रंप के विरोधी कोशिश तो कर जायेंगे पर उनको जिता नहीं पायेंगे.
America Presidential Election: कमला का जुमला चला नहीं, उनके इस बयान को रिपब्लिकन्स ने अपना हथियार बना लिया. भारत में जिस तरह हरियाणा चुनावों के दौरान राहुल गांधी ने जलेबी वाला बयान दिया था जिस पर भाजपाइ विपक्ष ने उनको धर दबोचा था.
लोकतंत्र में है यहां बड़ा छेद
दुनिया के सामने अमेरिका का आधुनिक, उदारवादी और ऊर्जावान लोकतंत्र का चेहरा था पर इस चेहरे का छेद साफ नजर आया जिसमें दुनिया ने देखा कि दो सौ पैंतीस साल के इस सबसे पुराने लोकतंत्र को अभी भी देश की महिलाओं पर विश्वास नहीं है.
महादेश का महिला-विरोधी जनादेश
अमेरिका को एक महिला राष्ट्रपति के आगमन के लिए अभी कितनी प्रतीक्षा करनी होगी, कहा नहीं जा सकता. डोनाल्ड ट्रंप की विजय ने इस महादेश में जनादेश का इतिहास बदलने से एक बार फिर रोक दिया है. अब दुनिया को लोकतंत्र का पाठ पढ़ाने वाले अमेरिका को इस बात की खामोश शर्मिन्दगी तो झेलनी ही होगी कि 235 साल का उसका चुनावी इतिहास आज भी सत्ता के शिखर पर किसी महिला को देखना नहीं चाहता.
महिला राष्ट्रपति के लिए अभी और प्रतीक्षा
यूएस प्रेसिडेंशियल इलेक्शन के परिणाम ने फिर से इस देश में महिला राष्ट्रपति की संभावना को शून्य कर दिया है. व्हाइट हाउस की दौड़ में रिपब्लिकन डोनाल्ड ट्रंप विजेता बनकर सामने आये जबकि ड्रेमोक्रेट कमला हैरिस को व्हाइट हाउस ने बाहर ही रोक दिया.
पहले उम्मीदवार को लगे 116 साल
पहला अमेरिकी चुनाव साल 1788-89 में हुआ था. तब से लेकर अगले एक सौ सोलह साल तक लेखकों और इतिहासकारों ने किसी भी महिला के अमेरिकी राष्ट्रपति बनने की संभावना नहीं जताई. साल 1872 में विक्टोरिया वुडहुल के रूप में इस देश को अपना पहला महिला उम्मीदवार मिला जिसने राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ने की हिम्मत की.
अमेरिका को महिलाओं पर भरोसा नहीं
उम्मीदवार तो दो-चार और भी हुईं पर उम्मीद किसी की पूरी न हुई. आज भी अमेरिका को लगता हो या न लगता हो, पर दुनिया को लगता है कि अमेरिका सब पर भरोसा कर सकता है किसी महिला पर नहीं. जिस देश में महिलावाद इतना जबर्दस्त छाया हुआ है कि दुनिया को प्रेरणा दे रहा है वहां ही महिला को देश का प्रथम नागरिक बनने नहीं दिया जा रहा है.
दो सौ पैंतीस साल से लगातार महिला को अमेरिका के सर्वोच्च पद पर आने से रोकने की परंपरा देश के लोकतांत्रिक स्वरूप पर बड़ा प्रश्नचिन्ह बन कर खड़ा है.
सवाल है पर जवाब नहीं
अब ये सवाल नहीं है कि अमेरिका का तथाकथित आधुनिक और लोकतांत्रिक समाज लैंगिक-समानता को स्वीकार करता है या नहीं, बल्कि जवाब ये है कि अमेरिका शुद्ध रूप से स्त्री-पुरुष के मध्य भेदभाव को स्वीकार करता है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था झंंडा बुलंद करता है.