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Home नई तकनीकी

Memory Tools: पुरानी तस्वीरें दिखाने की ऐप्स की ये अदा हमारी सोच से ज्यादा घातक साबित हो सकती है!

Digital Apps: कुछ डिजिटल ऐप्स हमें पुरानी यादें परोसते हैं और ये बात हमारे लिए उससे भी कहीं अधिक नुकसानदेह हो सकती है जितना हमें लगता है कि हो सकती होगी..

Parijat Tripathi by Parijat Tripathi
15 November 2024
in नई तकनीकी
0
We live dancing down the memory lane

We live dancing down the memory lane

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पुरानी तस्वीरें दिखाने वाले ये ऐप्स बुरे हैं या पुरानी तस्वीरें बुरी हैं या हमारा पुरानी तस्वीरों को देखना बुरा है ? बहुत ज़्यादा नुकसान किस बात से पहुँचता होगा ? – ये एक सवाल है आज तकनीक के युग में.

सवाल का जवाब सवाल की तरह ही सच है. हाँ, ये सच है. हम कल्पना में भी नहीं सोच सकते कि इन डिजिटल ऐप्स के द्वारा दिखाई गई पुरानी तस्वीरें हमारे लिए कितनी ज़्यादा नुकसानदेह सिद्ध हो सकती हैं. सत्य ये है कि वे हमको जितना हम सोचते हैं उससे कहीं आगे तक नुकसान पहुँचाती हैं.

हमें यादों के साथ जीना पसंद है। कोई भी पल चाहे वह सुखद याद हो या दुखद स्मृति, चाहे वह दिल दहला देने वाला पल हो या दिल तोड़ने वाला  – डिजिटल मेमोरी टूल हमारे याद रखने के तरीके को बिगाड़ सकते हैं – और भूलने के तरीके को भी.

डिजिटल मेमोरी प्रॉम्प्ट – डिवाइस या ऐप अक्सर हमको बताता है कि “आपको एक नई मेमोरी मिली है!” और अब ये हमारी ज़िंदगी का सामान्य हिस्सा बन गया है, सात साल पहले यह सुविधा सन 2017 में iOS 11 अपडेट पर iPhones ने हमारे लिए उपलब्ध कराई थी. ये Facebook के “ऑन दिस डे” नाम के एक फीचर से प्रेरणा लेकर बनी थी.  इसमें पिछले सालों के हमारी पोस्ट्स के फ़्लैशबैक हमारे सामने फिर से प्रगट किये जाते हैं.

अब मेमोरी प्रॉम्प्ट कई ऐप्स का एक मिला-जुला हिस्सा बन गया है. चाहे वो इंस्टाग्राम हो या स्नैपचैट या फिर स्पॉटीफाई जैसा स्ट्रीमिंग ऐप – ये सब हमारी भूली -अनभूली यादों को एक वार्षिक उत्सव के रूप में सोशल मीडिया पर बढ़िया तमाशा बना कर पेश करते हैं जहां हमारी छिपी हुई बातों को सुनने की चाहत और इस आदत के कई परिणाम भी सामने आते हैं.

हम लोग प्रायः हर साल मार्च के महीने में डिजिटल मेमोरी प्रॉम्प्ट देखते हैं, इसमें कई ऐसे पल भी होते हैं जो शायद हमारे जीवन के सबसे बुरे पलों में से एक हों – इनको हमारा फोन एक खूबसूरत याद के रूप में फिर से पेश कर देता है हमारे सामने. और कहता है कि ये एक सुन्दर दिन की याद है आपके लिए !

विक्टर मेयर-शोनबर्गर की एक पंक्ति यहाँ बड़े सही वक्त पर याद आती है – “हमारा मस्तिष्क भूलने के लिए डिज़ाइन किया गया है, और ऐसा अच्छे कारण से किया गया है,”

मैं हूँ या आप हों, कभी हमें अचानक ऐसी बातों की याद आ जाती है जो बिलकुल मज़ेदार नहीं होतीं बल्कि उसका उलटा ही होती हैं. उदाहरण के लिए, मान लो हमको रोमांटिक छुट्टियों की तस्वीरें दिखाई जा रही हों और अचानक उसमे एक ऐसी फोटो सामने आये जिसमे कोई ऐसी पूर्व प्रेमिका साथ में नज़र आ जाए जिसने उस वक्त बेदर्दी से हमारा दिल तोड़ दिया था.

या फिर कोई ऐसी फोटो जहाँ किसी मृतक के परिवार के सदस्यों की फोटो दिख जाए जब वे शोक मनाने की कोशिश कर रहे हों. ऐसे ही कुछ अमेरिकी दोस्तों ने शिकायत की कि 2016 में चुनाव दिवस की “यादों” से हम आतंकित हो गए थे और वही फोटोज़ हमारा फ़ोन हमको अच्छी पुरानी याद कह कर दिखता है. भला ये भी कोई बात हुई !

अब यहां से मामला थोड़ा गंभीर हो जाता है. इस दिशा में लगातार चल रही एक रिसर्च से पता चलता है कि लगातार स्मार्टफोन का इस्तेमाल हमारी यादों को बिगाड़ रहा है. याद हमारी कमजोर हो रही है क्योंकि अब याद को कुछ करना नहीं पड़ता. दूसरे शब्दों में कहें तो याद को करने के लिए कुछ रहा ही नहीं है. अब कुछ याद मत करो क्योंकि भूलने को कुछ नहीं है. अब सब सामने है.

ऐसा लगता है पुरानी यादें पेश करने की ये तकनीक खाली जगहों को भरने की कोशिश करती है. लेकिन ये कोशिश हमेशा सही नहीं है. इससे हमारे जीवन की कठिनाइयां बढ़ सकती हैं.

ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर हैं जिन्होंने तेरह साल पहले एक किताब शायद या लगभग इस विषय पर ही लिखी थी. वर्ष 2011 की उनकी किताब का नाम था – ‘डिलीट: द वर्चु ऑफ फॉरगेटिंग इन द डिजिटल एज’.  इन्ही प्रोफेसर साहब का नाम है विक्टर मेयर-शोनबर्गर. उन्होंने बताया कि डिजिटल उपकरणों ने हमारी यादों को बनाए रखने की हमारी सदियों पुरानी प्रथाओं को उलटा कर दिया है.

विक्टर मेयर-शोनबर्गर कहते हैं कि “यादों को सहेज कर रखना और बाद में फिर उन तक पहुँचना पहले के समय बहुत महंगा पड़ता था और बहुत समय लेने वाला काम था.” “इस काम के लिए न केवल आपको डायरी रखनी पड़ती है, साथ ही इन यादों तक पहुँचने के लिए और उनको वापस पाने के लिए आपको अटारी तक या जहाँ भी उनको संग्रहीत किया है वहां तक जाना भी पड़ता है.”

”लेकिन अब, स्मार्टफ़ोन आ गया है जिसमे लगभग असीमित स्टोरेज सप्लाई भी दिया गया है.” मेयर-शोनबर्गर का कहना है कि अब तो बस भूलने में बहुत “अधिक समय और प्रयास” लगता है. “यादें” नाम की सुविधा तो बस अपने आप में इसका एक उदाहरण है. इन यादों को फिर से पाने में कोई प्रयास नहीं लगता है – वे तो स्वचालित हैं.  लेकिन मान लीजिये आप उन्हें प्राप्त नहीं करना चाहते हैं, तो आपको मैन्युअल रूप से इस सुविधा को टर्न ऑफ करना पड़ेगा (और अधिकांश लोगों को तो ये भी नहीं पता कि वे ऐसा कर सकते हैं.)

मेयर-शोनबर्गर दलील देते हैं कि भूलना कोई आटोमेटिक टाइप का निष्क्रिय कार्य नहीं है – यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण हुनर या कौशल है. जब हमको वो सब कुछ याद होता है जो हमारे साथ हुआ है, तो हम बहुत अधिक विवरण वाली जानकारी में बुरी तरह या पूरी तरह डूब जाते हैं. पर ज़रा सोचिये, जब शोक मनाने या दर्दीले ब्रेकअप के बाद जीवन में आगे बढ़ने की बात आती है, तो इस समय भूलना उपचार प्रक्रिया का एक हिस्सा होता ही है.

यहाँ डिजिटल मेमोरी प्रॉम्प्ट, अपनी कृत्रिमता और अप्रत्याशितता को लेकर अचानक बीच में कूद पड़ता है और हमारी भूलने की प्रक्रिया में बाधा डाल देता है. “भगवान ने हमारे मस्तिष्क को भूलने के लिए डिज़ाइन किया है, और वो भी अच्छे कारण से.” वे कहते हैं कि “भूलने के इस विशेष वरदान से हमें अतीत से बंधे रहने के बजाय, वर्तमान पर और वर्तमान के उन निर्णयों और कार्यों पर ध्यान केंद्रित करने में मदद मिलती है, जिन्हें हमें करने की ज़रूरत होती है.”

इसी तरह मॉन्ट्रियल स्थित मैकगिल विश्वविद्यालय के ओलिवर हार्ट इस बारे में बड़े काम की बात कहते हैं, हार्ट का परिचय ये है कि वे इस विश्वविद्यालय में स्मृति और भूलने के तंत्रिका विज्ञान का अध्ययन कर रहे हैं. हार्ट का तर्क बड़ा संजीदा है – ”चाहे वो कोई व्यंजन हो या कोई दिशा – सभी कुछ देखने के लिए हम फोन पर निर्भर हैं. और ये अत्यधिक निर्भरता हमारी स्मरणशक्ति को समग्र रूप से खराब कर रही है.” दूसरी तरफ इस तथाकथित डिजिटल भुलक्कड़पन को लेकर विशेषज्ञों ने विरोध जताया है. कुछ अध्ययन ये बता रहे हैं कि डिजिटल उपकरण “इंसानी याददाश्त को खत्म कर रहे हैं”, (जबकि कुछ दूसरों का कहना है कि ये बात बहुत “अतिरंजना है” याने बढ़ाचढ़ा कर कही गई है.)

सही बात है. हमारे पास आँखें और हमारा फ़ोन है. अब कुछ ढूंढने के लिए सोचना नहीं पड़ता. अब दिमाग की जरूरत ही कहाँ पड़ती है.  दूसरे शब्दों में कहें तो हम सिविलाईज़ड पशु हैं जिसके पास अगर दिमाग या यादाश्त नहीं है तो क्या हुआ – तकनीक तो है, फ़ोन तो है, मेमोरी टूल्स तो हैं !

हार्ड्ट अपनी बात सामने रखते हुए कहते हैं कि हमारे दिमाग में भगवान ने एक टूल नहीं दिया फ़िल्टरेशन का. इस कमी के कारण तकनीक ने हमारे जीवन में हमें “यादों का समोसा और भूली बातों की बालूशाही खिलाने वाले उपकरण बेहिसाब पेल दिए हैं. अब यही उपकरण हमारे लिए समस्या बनते जा रहे हैं.

हमारे फ़ोन यह मान कर चलते हैं कि हम इतने फोकट हैं कि हम सब कुछ हमेशा के लिए रिकॉर्ड कर लेना चाहते हैं जबकि ज़्यादातर समय हम सक्रिय रूप से अपने जीवन की हर चीज़ पर बराबर से ध्यान केंद्रित करके नहीं चलते, न ही हम चल सकते हैं. हम शौकिया तौर पर कैमरे का इस्तेमाल सिर्फ़ अपने जीवन को रिकॉर्ड करने के लिए एक उपकरण के रूप में कर रहे हैं. इसमें हमारा उद्देश्य हर छोटी चीज़ को याद रख लेने का नहीं है.

इसी वजह से बहुत सी डिजिटाइज़ की गई “यादें”, जैसे कि ‘दो साल पहले मैंने सेंका था एक ख़ास तरह का भुट्टा’ – असल में ये कोई याद नहीं है. इस तरह की अनचाही बातों को न केवल आने वाले समय में भुला दिया जाता है, बल्कि उन्हें पहले से ही ईश्वर द्वारा याद रखने के लिए नहीं बनाया जाता है.

हार्ट कहते हैं कि -“किसने कहा भूलना कोई बुराई है ? ये तो एक गुण है” – इस बात का दूसरा पहलू देखें तो वो ये है कि हमें वास्तव में कुछ ऐसा याद आ सकता है जो दरअसल हम भूल गए थे, परन्तु हम उसको याद रखना चाहते हैं.

हो सकता है हम में से कोई ऐसी असुरक्षा के साथ भी जिया हो जिसमे उसे याद आता हो कि वो अच्छा नहीं दिखाई देता था. हो सकता है जीवन के किसी दौर में उसका व्यक्तित्व आकर्षक न दिखता हो. पर ऐसे में कभी कोई पुरानी तस्वीर अचानक मिल जाये जिसमे वो जवान और खूबसूरत नज़र आ रहा हो तो आज की तारीख में वो बस उस तस्वीर को ध्यान में रखने की कोशिश करेगा.

लेकिन मेमोरी टूल्स फ़्लैशबैक तस्वीरों से उनके महत्वपूर्ण संदर्भ छीन लेते हैं. जब भी कोई पुरानी तस्वीर हम देखते हैं चाहे वो जवानी की तस्वीरें हों और हमें पसंद भी हों, तो भी आज उसकी पृष्ठभूमि छिपी हुई है. आज उस तस्वीर को लेने के कारक नदारद हैं. ये बस एक चेहरा है, इसके पीछे भाव नहीं हैं. कभी-कभी ऐसी ही किसी ख़ुशी का चेहरा अपने पीछे के गहरे दर्द के भाव को छुपा लेता है अपने लिए ..ख़ास कर जब हम सालों बाद उस तस्वीर को देखते हैं जिसमे हमारे होंठों की मुस्कान के पीछे एक पीड़ा छिपी हुई है. पर ये तो बस हमे पता है औरों को नहीं.

ऐसी ही कोई तस्वीर किसी के पुराने दर्द को भी जिन्दा कर देती है जिसकी ज़िंदगी में ऐसा ही कोई ख़ुशी का लम्हा आया था और अचानक कुछ ऐसा हुआ कि वो लम्हा एक ऐतिहासिक दुःख में तब्दील हो गया.  इसलिए हर तस्वीर हर किसी के लिए ख़ुशी की वजह बन सकती है -ऐसा नहीं कहा जा सकता !!

 

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