ज़िन्दगी अपनेआप में एक खुली किताब होती है जिसमे रोज़ सुबह और रोज़ शाम होती है. कभी-कभी यूँ भी होता है कि इस खुली किताब में कुछ पन्ने जब खुलते हैं तो आप अवाक से रह जाते हैं. आप सोचते हैं ऐसा कैसे हो सकता है ?
दरअसल ये सबके साथ होता है. कोई एक ऐसा लम्हा ज़िंदगी में अक्सर आ जाता है कि जब इंसान को लगता है कि ये जो कुछ उसके सामने है या जो हो रहा है – पहले भी हुआ है कहीं. ये जरूर है कि आपको ये याद नहीं आता कि आपके साथ ऐसा कहाँ हुआ है ? कहाँ देखा है आपने ये दृश्य जो आपकी आँखों के सामने है लेकिन आपको याद आ रहा है ?
जब इसके बारे में आम लोगों से पूछा गया तो लगभग अस्सी प्रतिशत लोगों ने इसको लेकर सहमति जताई. उन्होंने कहा कि हाँ उनके साथ भी हुआ है ऐसा. लोग महसूस करते हैं डेजा वू, लेकिन ऐसा होता क्यों है ? क्यों लगता है कि ये घटना पहले हो चुकी है?
पहली बार कहीं आप गए हों तभी अचानक आपको लगने लगता है कि यहां तो आप पहले भी आ चुके हैं. आपको बड़ी गहराई से लगता है या कहें कि स्ट्रॉन्ग फीलिंग महसूस होने लगती है कि ऐसा पहले हो चुका है. ये दुनिया में डेजा वू के नाम से जानी जाने वाली घटना है. पर हम सोचने को मजबूर हो जाते हैं कि आखिर क्यों होता है ये डेजा वू?
ये एक फ्रेंच शब्द है. फ़्रांसिसी भाषा में डेजा वू का मतलब ‘पहले से देखा हुआ’ होता है. इस शब्द का उपयोग प्रथम बार 1876 में फ्रांसीसी फिलॉसफर एमिल बोइराक ने किया था उन्होंने किसी को लिखे एक पत्र में इस शब्द का इस्तेमाल किया था. एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अस्सी प्रतिशत लोग डेजा वू को ज़िन्दगी में महसूस करते हैं.
एक खास बात और भी है डेजा वू के साथ कि ये बहुत ही थोड़े समय के लिए महसूस होता है पर बहुत गहरा इमोशन छोड़कर जाता है.
क्या हो सकता है इसके पीछे का साइंस, क्यों होता है एहसास डेजा वू का- इसके पीछे कई थ्योरी हो सकती हैं. डॉ ओहा सुस्मिता एक न्यूरोसाइकाइट्रस्ट हैं. वो कहती हैं कि इसके पीछे मेमोरी थ्योरी संभावित है. उनके अनुसार, डेजा वू तब होता है जब आज की घटना या दृश्य पहले हो चुके परंतु भुला दिए गए अनुभव के जैसी होती है.
दूसरे शब्दों में समझें तो आज की घटना या दृश्य और पहले हो चुके अनुभवों में कुछ समानताएं होती हैं. इस बात से लगता है कि आज की घटना पहले हो चुकी है. डेजा वू इन कही गई समानताओं को मानने व समझने के लिए हमारे मस्तिष्क का प्रयास हो सकता है.
ये होती है एक स्ट्रॉन्ग फीलिंग
वैज्ञानिकों ने जब प्रयोगशाला में रीक्रिएट किया डेजा वू तो उन्होंने भी अनुभव किया कि ये बहुत ही स्ट्रॉन्ग फीलिंग होती है. उनके अनुसार, यह पता लगाना काफी मुश्किल है कि आखिर किस तरह ये अनुभव विकसित हो रहा है. इसके लिए साइंटिस्ट्स ने प्रयोगशाला में डेजा वू रीक्रिएट करने के लिए प्रयोग किया. कुछ प्रतिभागियों को आमंत्रित किया गया. वैज्ञानिक ऐनी क्लीरी और उनकी टीम ने इसमें वर्चुअल रियलिटी (VR) का सहयोग लिया.
डेजा वू क्रियेट किया
इस प्रयोग में सहभागियों को डेजा वू का अनुभव कराने के लिए ऐसा वातावरण बनाया गया जो उनके अनुभवों से मेल खाता था, और ये वे अनुभव थे जो उन्हें पूरी तरह से याद नहीं थे. इस प्रयोग को गेस्टाल्ट परिचित परिकल्पना (Gestalt familiarity hypothesis) के नाम से पुकारा गया.
ये था वैज्ञानिक प्रयोग
इस प्रयोग क्लीरी और उनकी टीम ने डेजा वू के एहसास को पैदा करने के लिए सहभागियों के अनुभवों के अनुसार बताई गई एक लोकेशन पर फर्नीचर और दूसरा सामान वैसा ही सजा दिया जैसा उन्होंने बताया. फिर पार्टिसिपेंट्स से कहा कि वे रीक्रिएट किए गए सीन को नेविगेट करें.
परिणाम में टीम ने पाया कि ये देखने के बाद सहभागियों को डेजा वू वाली अनुभूति हुई. इसका अर्थ यह हुआ कि जब कोई व्यक्ति अतीत से जुड़ी वस्तुओं को देखता है पर उन्हें याद नहीं कर पाता है, तो उसे डेजा वू वाला अनुभव होता है.
पुरानी याद का सामान
दरअसल इससे ये भी समझ में आता है कि हो सकता है कभी-कभी नई जगह के माहौल में कुछ पुरानी याद से जुड़े सामानों की वजह से पूरा चित्र ही बिलकुल वैसा दिखाई देने लग जाता है.
मैट्रिक्स थ्योरी
डेजा वू को समझाने की अलग अलग थ्योरियां भी विकसित हुई हैं. इनमें सबसे पॉपुलर और इंटरेस्टिंग थ्योरी मैट्रिक्स थ्योरी के नाम से जानी जाती है. इसे अक्सर ‘ग्लिच इन द मैट्रिक्स थ्योरी’ भी कहा जाता है. आप इसे सिम्युलेशन भी कह सकते हैं. कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि हम जिस ब्रम्हांड में जीते हैं, वो असली नहीं है. हम एक ऐसे ब्रम्हांड में रहते हैं जो कंप्यूटर से जुड़ा हुआ लगता है और ये दुनिया, पानी, पेड़, समुद्र, जीव सभी कुछ इसके भीतर का एक कम्प्यूटर प्रोग्राम है. इस प्रोग्राम में जब कोई ग्लिच आता है यानी कोई खराबी हो जाती है तो हमको डेजा वू वाला अनुभव होता है.
मैट्रिक्स थ्योरी को साल 1999 में रिलीज हुई हॉलीवुड फिल्म ‘मैट्रिक्स’ में देखा गया था.