प्रसिद्ध शायर बशीर बद्र की दो पंक्तियां भारत की कहानी कहती हैं – हम तो दरिया हैं हमें अपना हुनर मालूम है.. हम जिधर से चल पड़ेंगे रास्ता बन जाएगा !
लगभग पिछले दस सालों से भी अधिक समय से अमेरिका की एशिया नीति एक ही मुद्दे पर परेशान दिख रही है: चीन का उदय. आज जा रहे राष्ट्रपति बाइडेन के विचार पहले जा चुके राष्ट्रपति बराक ओबामा के विचारों से अलग थे. इन दोनों राष्ट्रपतियों के डोनाल्ड ट्रम्प के साथ भी काफी सारे मतभेद थे. फिर भी अमेरिका के इन तीनों सबसे बड़े नेताओं की एक ही सबसे बड़ी चिन्ता रही है – एक महान शक्ति के रूप में चीन का उभरना जो अमेरिका की दरोगाई वाली दुनिया में बड़ी चुनौती बनने लगा है!
इसी के अनुसार इन तीनों राष्ट्रपतियों ने वाशिंगटन की इंडो-पैसिफिक रणनीति को उन देशों के साथ साझेदारी वाली नीतियों से जोड़ा है जो बीजिंग को रोक सकते हैं.
परंतु अंदर की एक चिन्ता और है अमेरिका के लिये. एशिया में चीन ही अकेली उभरती हुई शक्ति नहीं है. इस महाद्वीप में एक और बड़ा घर भारत का भी है. भारत याने एक विशाल जनसंख्या, एक सशक्त सेना और एक बड़ी अर्थव्यवस्था वाला और परमाणु क्षमता संपन्न राष्ट्र.
भारत भी चीन की भाँति दक्षिण एशिया और एशिया में या कहें आज के विश्व में एक प्रतिष्ठित शक्ति के रूप में स्थापित हुआ है जो आधिपत्यवादी व्यवहार को नापसंद करता है. लेकिन भारत को लेकर अमेरिका शायद ही किसी तरह आशंकित हो. उसे नहीं लगता कि कभी भारत भी चीन की तरह उसके खिलाफ अपनी चुनौती पेश कर सकता है. पता नहीं उसे ऐसा क्यों लगता है?
इसके विपरीत अमेरिकी रणनीतिकारों ने भारत के भीतर अपना एक भागीदार देखा है और उस नजरिये से ही उन्होंने भारत से संपर्क किया है. इतना ही नहीं, उन्होंने भारत के उत्थान को भी प्रोत्साहित किया है. अमेरिका को आशा है कि नई दिल्ली बीजिंग को संतुलित करने के लिए पर्याप्त शक्ति स्रोत बनेगी. हो सकता है अमेरिका भी कहीं भीतर से यही चाहता हो कि भारत एक क्षेत्रीय शक्ति बने और वैश्विक व्यवस्था में “तीसरे ध्रुव” के रूप में सामने आये.
अमेरिका को को अधिक गहरी रणनीति पर विचार करना चाहिए. भारत की चीन के साथ यदि प्रतिस्पर्धा चल रही है तो कई क्षेत्रों में दोनों एक-दूसरे के मूल्यवान भागीदार भी हैं. पिछले दस सालों को छोड़ दें तो उसके पहले भारत की विश्व राजनीति काफी अजीबोगरीब रही है. दुनिया के मंचों पर भारत का व्यवहार कभी-कभी उन देशों को भी दुबारा सोचने पर विवश कर देता है जो उसके साथ मैत्रीपूर्ण संबंध विकसित करना चाहते हैं या उन्हें भारत की आवश्यकता है.
लेकिन 2014 के बाद का भारत काफी सुलझा हुआ है. विश्व पटल पर वह एक मददगार और उदार राष्ट्र के रूप में उभरा है. ऐसे में क्या भारत को अमेरिका जैसा बनने की शक्ति अर्जित करनी चाहिए? अमेरिका उम्मीद करता है भारत का चीन के प्रति वास्तविक होड़ अमेरिका की चीन के साथ होड़ में अमेरिका के पक्ष में जायेगी.
दूसरे शब्दों में कहें तो अमेरिका चाहता है कि एक त्रिध्रुवीय विश्व निर्मित हो जहां भारत तीसरा ध्रुव बने. तो इसका एक और अर्थ है कि अमेरिका रूस को चौथा ध्रुव नहीं मानता.
रूस को कम आंकने का अर्थ है अमेरिका का भारत के पक्ष में जाना क्योंकि तब नई दिल्ली का साथ मजबूत करके वाशिंगटन बीजिंग के हाथ कमजोर करने की चाहत रखता है. अमेरिका अपनी आदत के मुताबिक अधिक अस्थिर वैश्विक गतिशीलता उत्पन्न करने की कोशिश कर सकता है ताकि अमेरिका से मदद लेने की जरूरत स्थिर हो जाये.
इतिहास बताता है कि प्रायः देश जब महान शक्तियां बन जाते हैं, तो वे अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था को कई स्तरों पर अस्वीकार करते हैं और उसके विरुद्ध अपनी चुनौती पेश करते हैं. स्पष्ट ही है कि महाशक्ति के तौर पर वे दुनिया पर अपनी नई व्यवस्था थोपने की कोशिश करते हैं. फल ये होता है कि पहले से मौजूद दुनिया की महाशक्तियां तब अपने इन नए साथियों के उभार का सामना करने के लिये कदम उठाते हैं. पर इतिहास को पता है कि ऐसा भारत के साथ नहीं है.
आज के चीन या उससे पहले के सोवियत संघ के उलट आज अमेरिका भारत को रोकने या नियंत्रित करने का कोई प्रयास नहीं कर रहा है. इसके विपरीत अमेरिका तो सक्रिय रूप से भारत के उत्थान को सुविधाजनक बनाने की आशा कर रहा है. ऐसा पहले तब हुआ था जब इंग्लैन्ड ने बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में अमेरिका के उत्थान को सुविधाजनक बनाने में बड़ा योगदान दिया था.
भारत को लेकर ऐसी सोच के साथ अमेरिका चाहेगा कि वह भारत को अपने करीबी साझेदारों के नेटवर्क में शामिल करे और भारत को अमेरिका अपनी सप्लाई चेन पॉलिसी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बनाये. अमेरिका को भारत को अपने एक अहम रणनीतिक साझेदार के तौर पर देखना और व्यवहार करना होगा. उसे भारत के साथ मजबूत रक्षा संबंध विकसित करने होंगे, अपनी नई और नवीन प्रौद्योगिकियों तक भारत की पहुंच का विस्तार करना होगा और उसके साथ खुफिया जानकारी भी साझा करना होगा.
यही वजह है कि आखिरकार भारत विदेशी आलोचना कुपित हुआ है और इसको लेकर अब अमेरिका अधिक संवेदनशील हो गया है. इसका फल ये हुआ है कि न केवल बाइडन प्रशासन भारत विरोधी आरोपों पर टिप्पणी करने से परहेज करने लगा है बल्कि वैश्विक मंचों पर भारतीय प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी को बढ़ावा देने लगा है. इतना ही नहीं, कई मौकों पर अमेरिका ने मोदी और भारत का प्रमुखता से स्वागत भी किया है.
पहले ऐसा होता था कि भारत अमेरिका की विदेश नीति का दूरबीन लेकर अवलोकन करता था. आज हालात बदल गये हैं. अब अमेरिका को भारत की विदेश नीति को लेकर बारीकी से अध्ययन करना पड़ सकता है.
भारत की विदेश नीति के तीन प्रमुख लक्षण हैं: स्वतंत्रता, अपेक्षा और आत्म-संरक्षण. स्वतंत्रता भारत की विश्व-प्रसिद्ध गुटनिरपेक्षता नीति से जुड़ती है. अमेरिकी-सोवियत शीत युद्ध के दौर में यह भारत की विवशता की नीति थी या तीसरे ध्रुव के रूप में उभरने की शुरुआत – ये कहा नहीं जा सकता. हो सकता है इस नीति के पीछे दोनों प्रेरणाएं हों जिसे एक तीर से दो निशाने वाला बुद्धि-कौशल भी माना जा सकता है.
आज भारत की सक्षम मोदी सरकार अपनी इस नीति को “रणनीतिक स्वायत्तता” के रूप में प्रस्तुत करती है और इसका अर्थ है दूसरे राष्ट्रों की सोच चाहे जो हो, राष्ट्र को सर्वोपरि रख कर किसी अन्य बात की परवाह किये बिना भारत के हित में अधिकतम लाभ प्राप्त करना.
पिछले दो सौ सालों के ब्रिटिश शासन से मिले अनुभव ने भारत की धन-लूट का दृश्य देखा है वहीं भारत के प्रभुत्व को भी पराभव स्वीकार करना पड़ा है. इसलिये अब नई दिल्ली किसी दूसरी साम्राज्यवादी शक्ति की धौंस में नहीं आने वाला है और वह दुनिया में अपना उचित अधिकार प्राप्त करने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ है.
इन सब के बीच यह भी मानना होगा कि भारत का आत्म-संरक्षण एक बेहद जटिल और विविधतापूर्ण देश के प्रबंधन की चुनौती से जुड़ा है. यही कारण है कि भारत की विदेश नीति पर भारत की घरेलू राजनीति की छाया भी दिखाई देती है.
(क्रमशः)